सावन पुत्रदा एकादशी की पौराणिक कथा

एक बार पांडवों के ज्येष्ठ भ्राता राजा युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से विनम्रतापूर्वक आग्रह किया कि वह उन्हें सावन शुक्ल एकादशी की महिमा और व्रत की कथा सुनाएं। भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए कहा कि इस एकादशी को सावन पुत्रदा एकादशी के नाम से जाना जाता है। जो भी श्रद्धापूर्वक इस व्रत की कथा को सुनता है, उसे वाजपेय यज्ञ के समान पुण्य की प्राप्ति होती है।

कथा का प्रारंभ:

प्राचीन काल में महिष्मति नगरी पर राजा महीजित का राज्य था। राजा धर्मपरायण, दानी और प्रजा का हितैषी था, लेकिन एक पीड़ा ने उसे भीतर से तोड़ दिया था—वह निःसंतान था। संतान की प्राप्ति के लिए उसने अनेक यज्ञ, दान-पुण्य और धार्मिक कार्य किए, परंतु फल नहीं मिला। पुत्र की इच्छा अधूरी रह जाने से वह चिंतित और व्यथित रहने लगा।

एक दिन राजा ने अपनी सभा बुलाई और अपनी पीड़ा सभी के समक्ष रखी। उसने कहा, “मैंने सदैव धर्म के मार्ग पर चलकर प्रजा का कल्याण किया है, फिर भी संतान सुख से वंचित हूं। मेरा मन राजपाट में नहीं लगता। क्या यह मेरे किसी पूर्व जन्म के कर्म का फल है?”

राजा की वेदना सुनकर मंत्रीगण और प्रजाजन भी दुखी हो उठे। सभी ने निश्चय किया कि वे किसी तपस्वी महर्षि से इस समस्या का समाधान पूछेंगे। वे जंगलों की ओर चल पड़े और अंततः महर्षि लोमश के आश्रम में पहुंचे। उन्होंने महर्षि को प्रणाम कर राजा की समस्या बताई।

पूर्वजन्म का रहस्य:

महर्षि लोमश ने ध्यान लगाकर राजा के पूर्व जन्म को देखा। उन्होंने बताया कि राजा महीजित पूर्व जन्म में एक निर्धन वैश्य था। एक बार वह अत्यधिक भूख और प्यास से व्याकुल हो गया। जल की खोज में वह एक तालाब पर पहुंचा, जहां एक गाय पानी पी रही थी। उसने गाय को क्रोधित होकर भगा दिया और स्वयं पानी पीने लगा। उसी अधर्मी कार्य के कारण इस जन्म में उसे संतान का सुख नहीं मिल रहा।

समाधान और व्रत का प्रभाव:

महर्षि लोमश ने उपाय बताया कि सावन शुक्ल पक्ष की एकादशी को विधिपूर्वक व्रत, भगवान विष्णु की पूजा, और रात्रि जागरण करना चाहिए। इस व्रत का पुण्य अत्यंत फलदायी होता है।

महर्षि की आज्ञा अनुसार जब सावन शुक्ल एकादशी आई, तब राजा की प्रजा और मंत्रीगणों ने पूरे विधि-विधान से व्रत रखा, श्रीहरि विष्णु की आराधना की और रात्रि जागरण किया। द्वादशी के दिन उन्होंने अपने व्रत का पुण्य राजा को अर्पित कर दिया। उस पुण्य के प्रभाव से रानी को गर्भधारण हुआ और समय आने पर उन्हें एक सुपुत्र की प्राप्ति हुई।

निष्कर्ष:

जो भी श्रद्धा और नियमपूर्वक इस व्रत को करता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं, मोक्ष की प्राप्ति होती है और संतान सुख प्राप्त होता है। यह व्रत विशेषकर उन दंपतियों के लिए अत्यंत फलदायी माना गया है जो संतान की कामना रखते हैं।

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